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स्ती॒र्णं ब॒र्हिः सु॒ष्टरी॑मा जुषा॒णोरु पृ॒थु प्रथ॑मानं पृथि॒व्याम्। दे॒वेभि॑र्यु॒क्तमदि॑तिः स॒जोषाः॑ स्यो॒नं कृ॑ण्वा॒ना सु॑वि॒ते द॑धातु ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्ती॒र्णम्। ब॒र्हिः। सु॒ष्टरी॑म। सु॒स्तरी॒मेति॑ सु॒ऽस्तरी॑म। जु॒षा॒णा। उ॒रु। पृ॒थु। प्रथ॑मानम्। पृ॒थि॒व्याम्। दे॒वेभिः॑। यु॒क्तम्। अदि॑तिः। स॒जोषा॑ इति॑ स॒ऽजोषाः॑। स्यो॒नम्। कृ॒ण्वा॒ना। सु॒वि॒ते। द॒धा॒तु॒ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! हम लोग जैसे (पृथिव्याम्) भूमि में (उरु) बहुत (पृथु) विस्तीर्ण (प्रथमानम्) प्रख्यात (स्तीर्णम्) सब ओर से अङ्ग उपाङ्गों से पूर्ण यान और (बर्हिः) जल वा अन्तरिक्ष को (जुषाणा) सेवन करती हुई (सजोषाः) समान गुणवालों ने सेवन की (देवेभिः) दिव्य पदार्थों से (युक्तम्) युक्त (स्योनम्) सुख को (कृण्वाना) करती हुई (अदितिः) नाशरहित बिजुली सब को (सुविते) प्रेरणा किये यन्त्र में (दधातु) धारण करे, उस को (सुष्टरीम) सुन्दर रीति से विस्तार करे, वैसे आप भी प्रयत्न कीजिए ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो पृथिवी आदि में व्याप्त अखण्डित बिजुली विस्तृत बड़े-बड़े कार्य्यों को सिद्ध कर सुख को उत्पन्न करती है, उसको कार्यों में प्रयुक्त कर प्रयोजनों की सिद्धि करो ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(स्तीर्णम्) सर्वतोऽङ्गोपाङ्गैराच्छादितं यानम् (बर्हिः) अन्तरिक्षमुदकं वा (सुष्टरीम) सुष्ठु स्तृणीम। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (जुषाणा) सेवमाना (उरु) बहु (पृथु) विस्तीर्णम् (प्रथमानम्) प्रख्यातम् (पृथिव्याम्) भूमौ (देवेभिः) दिव्यैः पदार्थैः (युक्तम्) (अदितिः) नाशरहिता (सजोषाः) समानैः सेविता (स्योनम्) सुखम् (कृण्वाना) कुर्वती (सुविते) प्रेरिते (दधातु) ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! वयं यथा पृथिव्यामुरु पृथु प्रथमानं स्तीर्णं बर्हिर्जुषाणा सजोषा देवेभिर्युक्तं स्योनं कृण्वानाऽदितिर्विद्युत् सर्वं सुविते दधातु तां सुष्टरीम तथा त्वं प्रयतस्व ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! या पृथिव्यादिषु व्याप्ताऽखण्डिता विद्युद्विस्तीर्णानि कार्याणि संसाध्य सुखं जनयति, तां कार्येषु प्रयुज्य प्रयोजनसिद्धिं सम्पादयत ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! पृथ्वीमध्ये व्याप्त असलेली विद्युत मोठमोठे कार्य सिद्ध करते व सुखी करते. तिला कार्यात प्रयुक्त करून आपले प्रयोजन सिद्ध करा.